Wednesday, February 24, 2010

इतनी आज़ादी क्या ठीक है???


यह एक ऐसा विषय है जिससे कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है मगर ये विषय आत्ममंथन और आत्मचिंतन का है। किसी समय लड़कियों को अकेले घर से बाहर निकलने पर पाबन्दी थी बाद मैं उन्हें भाई के साथ बहार जाने कि इजाज़त दे गई। समय और बदला, लडकिया अकेले घर से बहार तो जा सकती थी लेकिन शाम ढलने से पहले उन्हें घर पहुंचना जरुरी था। उस समय तक कोई बाप अपनी लड़की को पढने के लिए बाहर भेजने में संकोच करता था। वह कम से कम इस बात कि तस्दीक करता था कि गर्ल्स होस्टल है कि नहीं, वहां सुरक्षा कैसी है। सदी बदली, संस्कृति बदली, समाज और यहाँ तक कि लोगों कि सोच भी बदल गई। मैं इसे गलत नहीं कहूँगा। लड़किया कोई कैदी नहीं है कि उन्हे शादी से पहले घर और शादी के बाद ससुराल में कैद रखा जाये। उनकी भी जिंदगी है, उन्हें भी स्वतंत्र जीने का हक़ है। सवाल यह है कि कितनी स्वतंत्रता ठीक है???
नॉएडा एक हाईटेक शहर है। बड़े-बड़े मॉल, मार्केट, पब आदि ने यहाँ का कल्चर बदल दिया है। यहाँ के कॉलेज में पढने, कॉल सेंटर में काम करने के लिए जब छोटे-छोटे शहरों से लड़के और लड़कियां आते है तो पता नही उन्हें यहाँ आते ही क्या हो जाता है? कुछ दिन बीतते ही लड़के को बीयर, गुटखा, सिगरेट की लत लग जाती है तो अब तक सहमी सी रहने वाली लड़की भूल जाती है की उसने अपनी जिंदगी में कभी सलवार सूट पहना होगा। अब तो बस जींस टॉप, कैपरी, बैकलेस, ये लेस... वो लेस... शेम लेस... सब पहनती हैं। परिवर्तन ही संसार का नियम है, लेकिन परिवर्तन ऐसा?????? यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन हद तब हो जाती है जब ये लड़के-लड़कियां प्यार की पीगे बढ़ाते हैं। घर में भी सहमी सी रहने वाली लड़की अब लिवइन रिलेशन में रहने लगती है। उनके घरवाले यही सोचते होंगे की उनकी बेटी लड़कियों के साथ रहती होगी पर उनका विश्वास गलत साबित होता है। इसका कारन यह है कि इस अनजान शहर में उन्हें देखने वाला उनका भाई, हर समय टोकने वालो माँ, बाप, चाचा, चाची कोई नहीं होता है जिसकी शर्म से यह अब तक ये काम नहीं कर पाए थे। यहाँ तो यह आज़ाद पंछी कि तरह होते हैं, इनके सामने खुला आसमान है और साथ हैं जवानी के पर, जितनी उड़ान ये भर ले उतनी ही शायद कम है......

Monday, February 22, 2010

दर्द

पहुँच जाता हूँ भीड़ में हाले दर्द दिल का लिए

फिर रहे है लोग सब दर्द बस अपना लिए

पूछते इस पीर से हम ज़िन्दगी कैसे जिए

चलते चलो तुम ज़िन्दगी बस हाथ एक-दूजे का लिए।

तन्हा चलोगे राह में तो ज़िन्दगी रुलाएगी

थाम लो बस हाथ तुम सुकून इस दिल में लिए

Sunday, February 21, 2010

पुलिस ही तो है कोई...


काफी समय पहले कि बात है, शायद तब मैं 8 वी क्लास में पढता था। मैं अपने एक दोस्त के साथ उसकी बाइक से घूम रहा था इसी बीच हमें एक दोस्त और मिल गया। हमने उसे भी अपने साथ ले लिया और मस्ती में झूमते चले जा रहे थे। यह मस्ती ज्यादा देर तक नहीं चल पाई। एकाएक हमारे सामने एक पुलिस वाला गया। उसे सामने देखकर तीनों के पसीने छूट गए। हमें लगा मनो खुद यमराज हमारे सामने गए हों। हमारे पास गाड़ी के कागज थे और ही हेलमेट। पुलिस वाले ने तीनो से घरवालो को बुलाने के लिए कहा। तीनों डर गए कि अगर घरवालों को पता चल गया कि पुलिस ने पकड़ रखा है तो बहुत मार पड़ेगी। इसलिए हम पुलिस वाले को मानाने में जुट गए कि किसी तरह वह मान जाये लेकिन वो हमसे भी ज्यादा बच्चा हो रहा था, मान ही नहीं रहा था। हमने उससे माफ़ी मांगी और कहा कि अंकल अब कभी नहीं घूमेंगे तो शायद उसे भी हम पर दया गई। उसने हमसे कहा कि अगर हम सड़क पर कान पकड़ कर दंड बैठक लगा देंगे तो वह हमें जाने देगा। एक तरफ घरवालो कि मार थी तो दूसरी तरफ अपनी बेइज्जती का डर...अब कहीं तो कोम्प्रोमाइस करना था। चूँकि शाम का समय था और सड़क पर थी कोई दिखाई नहीं दे रहा था तो हमने दंड बैठक लगाना ज्यादा मुनासिब समझा। सजा पूरी होते ही हम वहां से खिसक लिए। शुकर है शाम का समय था इसलिए हमारी इज्जत का फालूदा होने से बच गया। इस घटना के बाद तो जहाँ भी पुलिस दिख जाती हम रास्ते को ही छोड़ देते थे।

अब हालत बदल चुके है। पुलिस जनता और बदमाशों दोनों से मलाई मार रही है। जनता से रिपोर्ट लिखने से लेकर मामले की तफ्तीश तक बार-बार रिश्वत मांगी जाती है और अगर पुलिस किसी तरह बदमाश तक पहुँच भी जाये तो उसे छोड़ने का सौदा हो जाता है। पुलिस की चारों उँगलियाँ ही नहीं वो तो पूरे के पूरे घी मैं होते हैं। पुलिस को बनाया तो जनता की सेवा के लिए गया है लेकिन अब वह जनता से ही 'सेवा' का लाभ उठा रही है। यही कारण है की अब लोग तो क्या बच्चे भी नाम सुनकर भागते नहीं हैं। कई बार तो लोग मिलकर पुलिस की धुनाई भी लगा देते है और पुलिस पिटती रहती है। रिश्वत के दलदल में फंसकर पुलिस की छवि इतनी धूमिल हो चुकी है कि बच्चे भी किसी मोहल्ले में पुलिस के आने पर वहां से भागने के बजाये उल्टे पुलिस से पूछ लेते है ...अंकल क्या हो गया है यहाँ?
घर के बुजुर्ग कहानी सुनते थे कि उनके समय में जब पुलिस सड़क से गुजरती थी तो लोग डर से घर में छुप जाते थे कि पुलिस उनसे कुछ कहे किसी समय माँ भी बच्चे को पुलिस का नाम लेकर देती थी लेकिन आज कोई बच्चा पुलिस से डरता है जवाब होगा कतई नहीं इसे इक्कीसवी सदी का बदलाव तो नहीं कहा जा सकता है। मैंने भी एक बार एक बच्चे से पूछ ही लिया घर के पुलिस से डर नहीं लगता? बच्चे ने बड़ी तत्परता से जवाब दिया कि पुलिस ही तो है... कोई होव्वा थोड़े है। तब हमें शायद इतनी समझ नहीं थी अगर होती तो पुलिस वाले को बीस का नोट देकर हम भी बच सकते थे।
(फोटो गूगल से)

Wednesday, February 3, 2010

नया सवेरा



जय श्री गणेशाय नमः... अब आप सोच रहे होंगे की मैंने गणेश भगवान का नाम क्यों लिया तो भाई किसी नए काम को शुरू करने से पहले गणेशजी का नाम तो लिया ही जाता है। इस ब्लॉग के माध्यम से मेरे जीवन में भी तो एक नया अध्याय जुड़ रहा है। वाकई आज के इस आधुनिक युग में अपने विचारों को दूसरों के साथ बाँटने के इससे सशक्त माध्यम कोई और नहीं हो सकता है। कुछ समय पहले तक मैं ब्लॉग के विषय में कम ही जानता था, लेकिन जब मैंने अपने एक दोस्त का ब्लॉग देखा तो उसी पल ब्लॉग बनाने का निर्णय कर लिया। आखिर मुझे भी तो समय के साथ चलना है। बस उसी समय कंप्यूटर पर बैठा और बना डाला एक ब्लॉग। सोचा जब कल बन सकता है तो आज बनाने में क्या हर्ज है? वैसे भी कहते हैं जब जागो तभी सवेरा... यही सोच कर मैंने अपने ब्लॉग का नाम रखा 'नया सवेरा'। खैर यह तो मजाक की बात है सच कहू तो मैंने अपनी इस छोटी सी ज़िन्दगी में कई ऐसे लोगों को देखा है जो अपने जीवन में कई अवसर सिर्फ यह सोच कर खो देते हैं कि उन्हें लगता है कि उनकी तैयारी पूरी नहीं है, वह नौकरी की परिस्थिति से कैसे निपटेंगे, अगर इंटरव्यू में कुछ पूछ लिया तो???
मेरा एक दोस्त है... मांफी चाहूँगा उसका नाम नहीं बता सकता। हम दोनों ने एक साथ पढाई पूरी की। हम दोनों एक साथ नौकरी ढूंढने निकलते थे। कई संस्थानों के चक्कर काटने के बाद एक दिन एक जगह से हमारे पास फ़ोन आया। इंटरव्यू के लिए जाना था लेकिन उसने मना कर दिया। मैंने पूछा क्यों नहीं जाना इंटरव्यू में? उसने कहा कि उसकी तैयारी पूरी नहीं है। मैंने उसे बहुत समझाया कि तू यह क्यों सोच रहा है कि जो तुझे नहीं आता है वही पूछा जायेगा तुझसे...जो तुझे पता है वो ही पूछ लिया तो?? लेकिन वह नहीं माना। यही सोच कर कि उसकी तैयारी पूरी नहीं है वह पिछले तीन साल से नौकरी की तैयारी मैं लगा है और आज भी इंटरव्यू के नाम से घबराता है। मुझे दुःख होता है कि उसके जूनियर नौकरी कर रहे है और वह उनसे यह सोच कर नज़रें नहीं मिला पाता कि वो उससे पूछेंगे तो वह क्या जबाव देगा। दोस्त ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती है। यह तो एक अथाह समुद्र है, इसमें से जितनी बूँद पी ली जाये उतनी ही कम हैं। जब तक तीर को कमान पर नहीं चढाया जाता तब तक निशाना नहीं लगता। एक बार तीर को कमान पर चढाओ और निशाना लगाओ। एक बार...दो बार...तीन बार आखिर कब तक विफल होगे??? इसके बाद तो निशाना लग ही जायेगा। अगर आपको निशानेबाज बनना है और तीर को कमान पर चढाने से यह सोच कर दर लगता है कि निशाना न लगा तो??? बस इस 'तो' को अपनी जिंदगी से निकाल फेंकिये और देखिये कि सफलता आपके सामने खड़ी है। तो मेरे भाई जब तक इसी तरह घबराते रहोगे तो किसी काम की शुरुआत ही नहीं हो पायेगी। इसलिए बिना घबराये आग के दरिया में कदम रख दो और विश्वास करो वह पार अपने आप हो जायेगा। तो अभी पुराने ख्यालों को भूल कर उठो और नए सवेरे के साथ कोई भी काम लेकिन काम शुरू करो।